महानुभाव! जब तक हमें अपने जीवन में लक्ष्य और लक्ष्य के फल का पता नहीं होता, तब तक हम लक्ष्य की ओर अग्रेसित नहीं होते, हर व्यक्ति कार्य करने से पूर्व फल की इच्छा रखता है।
गृह कर्मणापि निचितं कर्म विमाष्टिं खलु गृह विमुक्ता नाम्। अतिथिनां प्रतिपूजा रूधिर मलं धावते वारि ।।
- (गा.-114, आ. समंतभद्र स्वामी, ग्रं-र.क. श्रा.चार.)
अर्थ : निश्चय से जिस प्रकार जल खून को धो देता है, उसी प्रकार गृह रहित निग्रन्थ मुनियों के लिए दिया हुआ दान गृह सम्बन्धी कार्यों से उपार्जित अथवा सुदृढ़ भी कर्म को नष्ट कर देता है। रत्नसंचयपूर के राजा श्रीषेण ने अपनी रानी सिंहनन्दिता के साथ विधिपूर्वक अर्ककीर्ति और अमितगति नामक चारण ऋद्धिधारी मुनियों को आहार दान दिया, उसके फलस्वरूप वह राजा-रानी के साथ भोगभूमि में उत्पन्न हुआ। मात्र एक आहार दान के कारण राजा श्रीषेण परम्परा से शान्तिनाथ तीर्थंकर हुआ।
दिगम्बर मुनियों के आहार की वयवस्था बनाना
इसी प्रकार हमें भी अपने जीवन में उत्तम गति को प्राप्त करना है तो हमें भी दिगम्बर मुनियों को आहार देना चाहिए व उनके आहार की व्यवस्था भी बनानी चाहिए।