सभी गुरु भक्तों का एक ही 'प्रण', "साधु सेवा और समर्पण"

साधु संघ को आहार दान देने से क्या लाभ होता है ?

महानुभाव! जब तक हमें अपने जीवन में लक्ष्य और लक्ष्य के फल का पता नहीं होता, तब तक हम लक्ष्य की ओर अग्रेसित नहीं होते, हर व्यक्ति कार्य करने से पूर्व फल की इच्छा रखता है।

गृह कर्मणापि निचितं कर्म विमाष्टिं खलु गृह विमुक्ता नाम्। अतिथिनां प्रतिपूजा रूधिर मलं धावते वारि ।।

- (गा.-114, आ. समंतभद्र स्वामी, ग्रं-र.क. श्रा.चार.)

अर्थ : निश्चय से जिस प्रकार जल खून को धो देता है, उसी प्रकार गृह रहित निग्रन्थ मुनियों के लिए दिया हुआ दान गृह सम्बन्धी कार्यों से उपार्जित अथवा सुदृढ़ भी कर्म को नष्ट कर देता है। रत्नसंचयपूर के राजा श्रीषेण ने अपनी रानी सिंहनन्दिता के साथ विधिपूर्वक अर्ककीर्ति और अमितगति नामक चारण ऋद्धिधारी मुनियों को आहार दान दिया, उसके फलस्वरूप वह राजा-रानी के साथ भोगभूमि में उत्पन्न हुआ। मात्र एक आहार दान के कारण राजा श्रीषेण परम्परा से शान्तिनाथ तीर्थंकर हुआ।

दिगम्बर मुनियों के आहार की वयवस्था बनाना

इसी प्रकार हमें भी अपने जीवन में उत्तम गति को प्राप्त करना है तो हमें भी दिगम्बर मुनियों को आहार देना चाहिए व उनके आहार की व्यवस्था भी बनानी चाहिए।

हमें अपने जीवन में दिगम्बर मुनियो की सेवा/वैय्यावृत्ति कैसे करनी चाहिए?ता है ?

गुरु के माध्यम से आत्मकल्याण करने वाला प्रत्येक गुरु भक्त अपने गुरु की सेवा करके अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहता है, किन्तु वह यह नहीं जानता कि गुरु की सेवा/वैय्यावृत्ति कैसे करनी चाहिए।

व्यापत्ति व्यपनोदः पादयोः संवाहनं च गुण रागात। वैयावृत्यं यावानुप ग्रहो ऽन्योपि संयमिनाम् ।।

- (गा-112, आ. समन्तभद्रस्वाः, ग्रन्थ-र.क. श्रा.चा.)

अर्थ :सम्यग्दर्शनादि गुणो की प्रीति से देशव्रत-सकलव्रत के धारक संयमीजनों की आई हुई नाना प्रकार की आपत्ति को दूर करना, पैरों का उपलक्षण से हस्तादिक अंगों का दबाना और इसके सिवाय अन्य भी जितना उपकार है, वह सब वैय्यावृत्ति कहा जाता है।

दिगम्बर मुनियों के विहार की व्यवस्था बनाना

प्रत्येक गुरु भक्त को गुरु की आवश्यकता के अनुसार सेवा करनी चाहिए। अगर वह समाज में है तो प्रत्येक व्यक्ति उनकी व्यवस्था बनाकर उनकी सेवा करना चाहता है। किन्तु जब वह विहार करते हैं तो उनके साथ चलने वाले, रास्ता दिखाने वाले भी नहीं होते। उस समय उनकी आवश्यकता के अनुसार हमें अपने दिगम्बर मुनियों के विहार की व्यवस्था बनाकर हमें उनकी सेवा/वैय्यावृत्ति करनी चाहिए।

दिगम्बर मुनियों के विहार में आहार की व्यवस्था बनाना

पंचकल्याणक, वेदि प्रतिष्ठा, सिद्धचक्र अनुष्ठान चातुर्मास इत्यादि ऐसे पावन अवसर पर किसी भी समाज को यदि दिगम्बर गुरुओं का सानिध्य प्राप्त हो जाता है, तो समाज में एक अलग ही आनन्द, उत्साह प्रकट हो जाता है। सभी लोग बड़े धूमधाम से भक्ति करते हैं, घर-घर पड़गाहन करते हैं, लेकिन जब वही दिगम्बर मुनि समाज से जंगलों की ओर विहार करते हैं तो उन जंगलों में विहार के समय आहार कराने वाला भी कोई नहीं होता, उस समय उनकी आवश्यकता अनुसार उनके विहार में आहार की व्यवस्था बनाकर हमें उनकी सेवा/वैय्यावृत्ति करनी चाहिए ।

उदाहरण : : कर्णरवा नदी के समीपवर्ती पर्वत के किनारे त्रद्धिधारी गुप्ति और सुगुप्ति नामक दो मुनिराजों को राम और सीता ने नवधा भक्ति के साथ आहार दान दिया और आहार दान के प्रभाव से दिव्य रत्नवृष्टि होने लगी।

- (गा.-114, आ. समंतभद्र स्वामी, ग्रं-र.क. श्रा.चार.)

दिगम्बर मुनियों के स्वास्थ्य के अनुकूल औषधि इत्यादि की व्यवस्था बनाना

तेषां क्रिया प्रतिदिनं क्रियते भिषग्भ-रायुर्वयोऽग्निबलस्त्व सुदेश सात्म्यम् । विख्यातसत्प्रकृतिभेषजदेहरोगान् कालक्रमानपि यथाक्रमतो विदित्वा ।।

- (पृ.8, गाथा 27, आ. उग्रादित्य ग्रन्थ कल्याणकारकम्)

अर्थ :उन धर्मात्मा रोगियों की आयु, वय, अग्निबल, सत्त्व, देश, अनुकूलता, वातादिक प्रकृति इनके अनुकूल औषधि, शरीर रोग व शीतादिक, काल, इन सब बातों को क्रम प्रकार जानकर चिकित्सा करें।

जैसे - एक माता-पिता मौसम बदलने पर अपने शिशु के खान-पान, वस्त्र इत्यादि का ध्यान रखते हैं, उसकी प्रकृति के अनुसार क्रिया करते हैं। क्या जिस तरह से माता-पिता अपने बच्चे की औषध इत्यादि की व्यवस्था बनाते हैं, उसी तरह हम अपने गुरुओं की औषधि इत्यादि की व्यवस्था नहीं बना सकते।

उदाहरण : कावेरी नाम के नगर में राजा उग्रसेन के राज्य में धनपति सेठ एवं धनश्री सेठानी की पुत्री वृषभसेना को औषधि दान के फल से सर्वोषधऋद्धि की प्राप्त हुई।

हमें अपना दान कहाँ-कहाँ देना चाहिए

बहुत से लोग जो सोचते हैं कि हमें भी दान देना चाहिए, परन्तु वे यह नहीं जानते कि दान कहाँ देना चाहिए, कुछ लोग चिड़िया, कबूतरों को दाना डालते हैं, कुछ मछलियों के लिए आटे की गोलियां बनाकर डालते हैं, कुछ लोग गाय के लिए चारा डालते हैं, कुछ लोग अनाथ आश्रम, रेलवे स्टेशन पर जाकर गरीबों के लिए चाय, नाश्ता, कम्बल इत्यादि दान देते हैं, लेकिन वहां दान देकर भी हमारी आत्मा तृप्त नहीं होती। इसीलिए हमारे आचार्यों ने लिखा है कि हमें दान कहाँ देना चाहिए।

जिनबिम्ब जिनागारं जिनयात्रा महोत्सवं। जिनतीर्थं जिनागम जिनायतनानि सप्तधा ।।

अर्थ : जिनबिम्ब, जिनमंदिर, जिनयात्रा, पंचकल्याणक महोत्सव, जिन तीर्थोद्वार, जिनागम, जिन आयतन, ये सात दान के योग्य क्षेत्र हैं।

आज के समय को देखते हुए बड़ी प्रसन्नता होती है कि प्रत्येक गांव, कस्बे, नगरों में नवीन मंदिरों का निर्माण हो रहा है, सिद्धक्षेत्र अतिशय क्षेत्रों पर जिर्णोद्धार हो रहा है। नए व प्राचीन ग्रंथों की रचनाएं भी हो रही हैं, बड़े-बड़े अनुष्ठान इत्यादि के माध्यम से जिनशासन की महती प्रभावना हो रही है, किन्तु आज के समय में हमें अपने निर्ग्रन्थ मुनि (जिन आयतन) जो चलते फिरते तीर्थ हैं, उनके प्रति भी ध्यान देना होगा। हमें दान वहां देना चाहिए जहां पर हमारे दान की आवश्यकता हो। उदाहरण-के रूप में आज से 2000 वर्ष पूर्व सम्राट खारवेल ने दिगम्बर साधुओं के लिए अनेक गुफाओं का निर्माण कराया था, जो आज भी उड़ीसा में हाथीगुफा के नाम से प्रसिद्ध है,

- (हाथीगुफा शिलालेख पंक्ति-15)

निर्ग्रन्थ मुनियों के सिद्धक्षेत्र/अतिशय क्षेत्र की यात्रा की व्यवस्था में एवं सिद्धक्षेत्र अतिशय क्षेत्रों पर दिगम्बर मुनियों के चातुर्मास की व्यवस्था में हमें अपना दान देना चाहिए एवं उनकी सेवा कर हम अपनी आत्मा का कल्याण कर सकते हैं।

दिगम्बर मुनियों के विहार में आवास की व्यवस्था

उत्तगं तोरणोपतं, चैत्यागार मद्यक्षयम् । कर्त्तव्यम् श्रावकैः शक्त्या मठादिक मपि स्फुटम् ।।

- (गाथा-33, आ. शिवकोटि स्वामी, ग्रंथ-रत्नमाला)

अर्थ :श्रावकों का कर्त्तव्य है, कि वे तोरण द्वारों से युक्त एवं पापों के क्षय करने वाले ऊँचे-ऊँचे जिनमंदिर बनावे तथा यथाशक्ति साधुओं के ठहरने के लिए मठ, धर्मशाला व अतिथि भवन भी बनावें।

प्रत्येक जैन श्रावक को आज के समय को देखते हुए निर्ग्रन्थ मुनियों के विहार में आवास की व्यवस्था को भी बनाना होगा। आज शहरों से सटे छोटे-छोटे सभी गांवों में से जैन समाज के घर शहरों में पलायन करने के कारण गांव खाली हो चुके हैं, जिनके कारण दिगम्बर मुनियों को विहार करने में काफी कठिनाई होती है। विहार करते हुए हमारे निर्ग्रन्थ मुनियों को कभी-कभी समाज न होने के कारण जंगलों में, सूने स्थानों में, वृक्षों के नीचे ही रात गुजारनी पड़ती है। आज से पूर्व चतुर्थ काल में राजा-महाराजा एवं श्रेष्ठी वर्ग मुनियों के आवास की व्यवस्थाओं में गुफाएं इत्यादि बनवाया करते थे एवं विहार में हर 10-15 कि.मी. पर विश्राम गृह की व्यवस्था बनाते थे, जिससे दिगम्बर मुनियों को उनकी साधना में किसी भी प्रकार की आकुलता-व्याकुलता न हो।

समाधिगुप्त और त्रिगुप्तनाम के दो मुनियों की रक्षा के अभिप्राय से अच्छे भावो को धारण कर सुकर सौधर्म स्वर्ग में महान ऋद्धियों को धारण करने वाला देव हुआ।

- (आ. समन्त भद्र स्वाः, गूं. र.क. श्रा.चा., गा-118)

शिक्षा : हम सभी अपने जीवन में साधु के आवास की व्यवस्था को बनाकर उत्तम गति को प्राप्त करें।

दिगम्बर मुनि, आर्यिका एवं श्रावक-श्रविकाओं के अध्ययन की व्यवस्था बनाना

आज भौतिकता के समय में लोग धर्म से विमुक्त होने लगे हैं, वह यह भी नहीं जानते हैं कि उन्हें कब-कहां-क्या करना चाहिए? आज के समय में लोग अपना किमती समय मॉल, सिनेमा हॉल, किट्टी पार्टी, इत्यादि घूमने-फिरने में खर्च कर देते हैं। शादी-ब्याह, मौज-मस्ती में अपना धन खर्च कर देते हैं, लेकिन वह यह नहीं जानते कि इन सब क्रियाओं से तन-मन-धन इन सबका दुरूपयोग हो रहा है, किन्तु वह यह सब भी नहीं जानते हैं कि हम अपने तन-मन-धन का सदुपयोग कहां करें? इन सब सवालों के जवाब हमारे आचार्यों ने समय-समय पर दिए हैं।

अगार्यनगारर-च- (į-तत्त्वार्थ सुत्र, आ. उमास्वामी, अध्याय-7, सूत्र-19)

अर्थ : ग्रहस्थ और अनागारी के भेद से व्रती दो प्रकार के होते हैं। अगर इस संसार से पार होना है तो देश व्रती और महाव्रती (मुनि-आर्यिका, श्रावक-श्राविका) की सेवा के माध्यम से हम अपना कल्याण कर सकते हैं। हम अपने बच्चों के जन्मदिवस या अपनी सालगिरह इत्यादि के अवसर पर सभी लोगों को बुलाते हैं, सभी को भोजन कराते हैं, दान भी करते हैं। मगर कभी हमारे मन में यह भी आया कि हम अपने त्यागी व्रती के लिए भी कुछ दान करें? संसारी परिजनों के लिए तो हमने बहुत कुछ किया, मगर कभी किसी त्यागी व्रती के लिए वस्त्र भेंट किए ? कई बार हमने मुनि-आर्यिकाओं की व्यवस्था तो बनाई होगी, किन्तु कभी किसी त्यागी-व्रती की व्यवस्था बनाई ? क्या कभी उनकी यात्रा कराई? कभी त्यागी व्रती के पढ़ने-लिखने की व्यवस्था बनाई ? अगर अभी तक व्यवस्था नहीं बनाई होगी, तो अब व्यवस्था बनानी होगी। जिससे हमारा धर्म, संस्कृति, संस्कार, समाज सब सुरक्षित रहेंगे और हमारे तन-मन-धन का भी सदुपयोग होगा।

उदाहरण: भरत चक्रवर्ती ने त्यागीव्रती श्रावकों का सम्मान करके अपने आपको धन्य माना।

- (आ.-जिसेनस्वाः, पर्व-38, आदिपुराण, भाग-2, पृष्ठ 240-268)

दिगम्बर मुनियों की परम्परा को सुरक्षित रखना

दड्या दिगम्बरू देह बीचारी आपि मरै अवरा नह मारी

- (गुरु ग्रंथ साहिब, भाग-13, पृष्ठ-356)

अर्थ : दया दिगम्बर साधुओं के अंदर विराजमान रहती है। वे स्वयं चाहे मर जाएं, पर दूसरों को कभी नहीं मारते।

जिनका अंतरंग ऐसा पवित्र है, धन्य है ऐसे संत

वद समिर्दिदिय रोधो, लोचा वासय मचेल मण्हाणं। खिदिसयण मदंतवणं ठिदि भोयण मेय भत्तं च ।। ऐदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । एत्थ पमाद कदादो अइचारादो णियत्तोऽ हूं ।।

अर्थ : पांच महाव्रत, पांच समिति, पंचेन्द्रिय निरोध, लोच करना, षटआवश्यक, वस्त्र मात्र का त्याग, स्नान का त्याग, भूमि पर शयन, दंत नहीं धोना, भूमि पर खड़े होकर भोजन करना और दिन में एक बार भोजन करना निश्चय से ये मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण जिनेन्द्र देव ने कहे हैं। (मुनि प्रतिक्रमण, गौतम स्वामी, महावीर स्वामी के अंतिम गणधर ।)

यदि आज इस पंचम काल में धर्म-संस्कार, संस्कृति को जीवित रखना है, तो हमें अपने गुरुओं की परम्परा को सुरक्षित रखना होगा और गुरुओं की परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए हमें उनकी प्रत्येक व्यवस्था (आहार, विहार, विहार में आवास इत्यादि) को सुचारू रूप से करनी होगी। तभी हम एवं हमारा धर्म सुरक्षित रह सकता है।

दिगम्बर मुनियों के संदेश को जन जन तक पहुँचाना

ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्याण। मोह महा पद पियो अनादि, भूल आपो भर मत वादि ।।

- (पंडित-दौलतराम जी, छहडाला, भा.1/3)

अर्थ :हे भव्यात्माओं! आदि आप अपना कल्याण चाहते हो तो गुरुजनों की उस भला करने वाली शिक्षा को मन लगाकर सुनो। यह जीव अनादिकाल से मोहरूपी तेज शराब को पीकर अपने आत्म स्वरूप को भूल कर बिना प्रयोजन भ्रमण कर रहा है।

हमें यदि अपना कल्याण करना है तो हमें अपने गुरु की शिक्षा को मन लगाकर सुनना होगा और उसे अपने जीवन में ग्रहण भी करना होगा, तभी हम इस मोह की जंजीर को तोड़कर इस संसार को छोड़ सकते हैं। आज से लगभग 2 हजार वर्ष पूर्व हमारे पूर्वाचार्य समंतभद्र स्वामी, पूज्यपाद स्वामी, अकलंक स्वामी इत्यादि आचार्यों ने राजाओं की सभाओं में जाकर वाद-विवाद के माध्यम से जैन धर्म को विजय प्राप्त कराई एवं जैन धर्म को एक उच्च कोटि के शिखर पर स्थापित किया। यदि आज के समय में हो रहे भ्रष्टाचार, अत्याचार, हिंसा इत्यादि को रोकना है, देश और धर्म को सही दिशा में ले जाना है व प्रत्येक जीव का कल्याण करना है तो, हमें जन-जन को दिगम्बर मुनियों से जोड़ना होगा एवं दिगम्बर मुनियों के संदेश को जन-जन तक पहुंचाना होगा, तभी हम देश-धर्म व प्रत्येक जीव का कल्याण कर सकते हैं।